By: रंजना मिश्रा
Apna Lakshya News
छत्तीसगढ़ : कई रणनीतियों और कई ऑपरेशन्स के बाद भी नक्सली समस्या कम होने का नाम ही नहीं ले रही। चौंकाने वाली बात यह है कि छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसी जगहों के पिछड़े इलाकों से आने वाले कई युवाओं को लुभाने की कोशिश की जा रही है। साल 2018 में हुई कुछ रिसर्चों से पता चला है कि नक्सली युवाओं को लुभाने के लिए अपनी विचारधारा का नहीं बल्कि अपनी यूनिफॉर्म और अपने हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। वे इन दोनों हथकंडों को अपनाकर ट्राइबल एरियाज़ में रहने वाले युवाओं को उनकी जमीन के लिए लड़ने के लिए उकसाते हैं। इस स्पेशल स्टडीज के जरिए उन वजहों का पता लगाने की कोशिश की गई थी कि आखिर क्यों आदिवासी इलाकों से आने वाले युवा नक्सल आंदोलन से जुड़ने लगे हैं।
हालांकि ऐसे युवा कुछ समय बाद नक्सली आंदोलन को छोड़कर चले भी जाते हैं। इस स्टडी में 25 ऐसे नक्सलियों का इंटरव्यू लिया गया था, जिन्होंने 12 से 13 साल के बाद आत्मसमर्पण कर दिया था। चौंकाने वाली बात यह है कि इन सभी 25 युवाओं को इतने वर्षों में नक्सली विचारधारा समझ ही नहीं आई थी और ना ही वे यह बता सके थे कि क्यों उन्होंने इस प्रतिबंधित संगठन का दामन थामा था। 92 फीसदी नक्सलियों ने बताया था कि वे इस आंदोलन से सिर्फ इसलिए जुड़े थे क्योंकि नक्सलियों की यूनिफार्म सेना की तरह हरे रंग की होती है, उनके पास बंदूकें होती हैं और इसी वजह से नक्सलियों ने गांव वालों पर अपना एक अलग प्रभाव छोड़ा था। इन वजहों के अलावा गरीबी, बेरोजगारी, व्यक्तिगत या पारिवारिक दुश्मनी भी कुछ ऐसी वजहें हैं, जो युवाओं को नक्सलवाद से जोड़ने के लिए प्रेरित करती हैं। इनमें से कोई भी युवा नक्सली विचारधारा की वजह से नहीं जुड़ा था, इसलिए जब सरकार की तरफ से सरेंडर पॉलिसी आई, तो 25 फीसदी ने बीमारी के चलते संगठन को अलविदा कह दिया था। इस रिसर्च में यह बात भी सामने आई है कि करीब 33 फ़ीसदी कैडर्स सरकार की सरेंडर पॉलिसी से प्रभावित हुए थे, वहीं 13 फीसदी ऐसे थे जो अपने सीनियर्स की तरफ से हो रहे शोषण से परेशान थे।
1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुआ यह आंदोलन ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ के संस्थापक ‘माओत्से तुंग’ की विचारधारा से प्रेरित था। माओत्से तुंग का मानना था कि राजनीतिक सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। उनका कहना था “राजनीति रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति है।” भारत में माओ के विचार को लागू करवाने वाले नेता चारु मजूमदार और कानू सान्याल थे, जो यह मानते थे कि गरीबों को उनका हक दिलाने के लिए सरकार का बंदूक और बारूद के जरिए विरोध करना चाहिए और सरकार को बदल देना चाहिए।
नक्सलवाद, माओवाद, अर्बन नक्सल, अर्बन गुरिल्ला ये सब आज भी बंदूक और बारूद वाले विचारों से भरे हुए हैं। लाल गलियारे यानी कि रेड कॉरिडोर की यह विचारधारा लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास नहीं करती, इनकी आस्था सशक्त क्रांति में है।थोड़ा बहुत ब्रेन का इस्तेमाल और बाकी बम और बारूद की विध्वंसक ताकत, इसी के आधार पर नक्सलबाड़ी से निकली नक्सलवाद की विचारधारा कथित तौर पर सामाजिक न्याय कायम करने की डुगडुगी बजाती है। भारत में हथियारबंद बगावत की यह बयार नक्सलबाड़ी से आई, इसने पहले पड़ोस के बिहार और झारखंड को अपने आगोश में लिया, फिर छत्तीसगढ़ और उड़ीसा चपेट में आए और फिर यह आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक फैल गई।
नक्सलबाड़ी गांव में पैदा हुए कानू सान्याल हिंसक तरीके से सत्ता को हथियाना चाहते थे। जमीन पर मालिकाना हक को लेकर नक्सलबाड़ी में 23 मई 1967 को तीर कमान से लैस बागियों और किसानों का पुलिस से संघर्ष हुआ। नक्सलबाड़ी आंदोलन को भारत में वैचारिक सहयोग, देश के वामपंथी दलों से मिला, लेकिन बाद में कई वामपंथी दल मानने लगे थे कि भारत की जनता अभी सशस्त्र क्रांति के लिए तैयार नहीं है और यही वजह थी कि बाद में कई नक्सली नेता भारत की राजनीति में शामिल हो गए, इसके बाद धीरे-धीरे नक्सलियों का प्रभाव भी भारत के जिलों से कम होने लगा।
पिछले 20 वर्षों में नक्सली हमलों में करीब 12 हजार लोग मारे गए हैं। नक्सलियों से जुड़े संगठन, आदिवासी इलाकों में तेंदु लीव्स पर टैक्स लगाकर, अवैध खनन से, छत्तीसगढ़ और झारखंड में भारत की 40% कोयला खदानें हैं उन पर टैक्स लगाकर, इसके अलावा यहां बड़ी तादाद में लोहा, चूना, पत्थर और बॉक्साइट जैसे कीमती पत्थर और खनिज मौजूद हैं जिन्हें चोरी-छिपे बेचकर पैसा कमाते हैं, उन्हें विदेशों से भी फंडिंग होती है। इन पैसों से नक्सली संगठनों को मजबूत किया जाता है और उन्हें आधुनिक हथियार उपलब्ध कराए जाते हैं,
इसप्रकार हमारे देश की अनमोल धरोहरों का दोहन करके ये लोग देश के दुश्मनों के साथ मिलकर देश के साथ गद्दारी करते हैं और देश के जवानों को मारते हैं। जितना जरूरी विदेश में बैठे देश के किसी दुश्मन को मारना है, उससे भी ज्यादा अब अपने देश का खाने वाले और अपने देश से गद्दारी करने वाले इन खूंखार नक्सलियों का मारा जाना जरूरी हो गया है। वर्ष 2010 में भारत के 200 जिले नक्सल प्रभावित थे, हालांकि अब नक्सलियों की जड़ें कमजोर होने के साथ सीमित होने लगी हैं, इसमें काफी कामयाबी मिली है।
माना जा रहा है कि 3 अप्रैल के हमले का मास्टरमाइंड माडवी हिडमा है, जिसकी उम्र करीब 40 साल है और इस पर 40 लाख का इनाम है, वह छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के पुवर्ती गांव का आदिवासी है, 90 के दशक में वह नक्सली बना, वह पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी यानी पीएलजीए की बटालियन नंबर 1 का मुखिया है। हिडमा को उसके भयंकर और घातक हमलों के लिए जाना जाता है। हिडमा करीब 180 से 250 नक्सलियों के समूह का सरगना है, जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं। हिडमा की बटालियन ही सभी बड़े हमलों को अंजाम देती है। सुकमा के जगरमुंडा इलाके में इसका काफी प्रभुत्व है। दंतेवाड़ा से लेकर झीरम घाटी तक में खूनी खेल हिडमा की बटालियन ने ही खेला है। दसवीं तक की पढ़ाई पूरी कर नक्सलवादी आंदोलन में शामिल होने वाला हिडमा फर्राटेदार इंग्लिश भी बोलता है, जिसके कारण वह अर्बन नक्सली नेताओं का चहेता है।
नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकार द्वारा किए गए विकास के कार्य नक्सलियों को नागवार गुजरते हैं। सड़क, पुल निर्माण, स्कूल, मोबाइल टावर, रोजगार के ट्रेनिंग सेंटर ये चार से पांच ऐसे सेक्टर हैं, जिन पर सरकार का फोकस है, क्योंकि अगर ये चीजें आदिवासियों तक पहुंच जाएंगी तो ये लोग नक्सलियों के चंगुल से बहुत हद तक बाहर हो सकते हैं। कई ऐसे डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स पर नक्सलियों ने हमले किए हैं, जिनसे आदिवासियों का विकास होता और जो उनके लिए फायदेमंद साबित हो सकते थे। कुछ लोगों का मानना है कि इनके हथियार उठाने के पीछे का मुख्य कारण है कि इनको बुनियादी सुविधाओं की जरूरत है,
ये अपने अधिकारों की बात करते हैं, किंतु वास्तव में ये हथियार वसूली करने के लिए उठाते हैं। भारत में नासूर बन चुके नक्सली और चीन के कनेक्शन को लेकर अब कई खुलासे हो चुके हैं, कभी हथियार और गोला बारूद से मदद को लेकर, कभी फंडिंग को लेकर, तो कभी नक्सलियों को ट्रेनिंग देने को लेकर, चाइना इनको हर तरह से सपोर्ट करता है। लाल आतंक की मदद का आरोप केवल चीन पर ही नहीं बल्कि पाकिस्तान पर भी लगता रहा है, कई बार नक्सलियों के पाक कनेक्शन की भी पोल खुल चुकी है और खास तौर पर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई कई बार बेनकाब हो चुकी है। आई एस आई के झारखंड और छत्तीसगढ़ में नक्सली अभियान को समर्थन देने के सबूत भी मिल चुके हैं।
भारत में नक्सलवाद एक ऐसे खूनी संघर्ष की कहानी है, जो आज तक बर्बादी, बेकारी और हिंसा के अलावा कुछ हासिल नहीं कर पाई है। नक्सलवाद को समाप्त करने में सबसे आगे आता है मानवाधिकार, सवाल उठता है कि सरकार इन्हें एक ही झटके में समाप्त क्यों नहीं कर पाती, जबकि आज इतनी टेक्नोलॉजी आ गई है, बड़ी-बड़ी मिसाइल्स हैं, ड्रोन्स हैं, फिर भी सरकार इतनी बड़ी समस्या को जड़ से समाप्त करने में नाकाम क्यों है? तो इसके पीछे का कारण है, चूंकि ये हमारे ही देश के गद्दार हैं, इन्हें अगर इस तरह मारा जाएगा तो सैकड़ों हजारों बेकसूरों की भी जान जा सकती है, इसीलिए सरकार के हाथ तो बंधे होते हैं, पर इन नक्सलवादियों के हाथ बंधे नहीं हैं और ये हमारे जवानों को बेदर्दी से मारते रहते हैं।
अब नक्सलवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुका है, इन्हें जड़ से खत्म करने के लिए अब एक बड़े अभियान का खाका तैयार करने की जरूरत है। नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन में और तेजी लाई जाए, इसके लिए ह्यूमन इंटेलिजेंस और टेक्निकल इंटेलिजेंस का सहारा लिया जाए और इस समस्या को जल्द से जल्द जड़ से समाप्त कर दिया जाए।